लेख-निबंध >> भक्ति काव्य से साक्षात्कार भक्ति काव्य से साक्षात्कारकृष्णदत्त पालीवाल
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भक्तिकाव्य से साक्षात्कार' एक प्रश्नाकुल अनुभव रहा है। इस अनुभव को आत्मसात करने के प्रक्रिया में जिस आत्ममन्थन की शुरुआत हुई…
‘भक्तिकाव्य से साक्षात्कार’ एक प्रश्नाकुल अनुभव रहा है। इस अनुभव को आत्मसात् करने की प्रक्रिया में जिस आत्ममन्थन की शुरुआत हुई और जिस सांस्कृतिक अस्मिता से पाला पड़ा, उसे कह पाना सम्भव नहीं है। लेकिन उन अनुभवों की गीली मिट्टी ने आकार ग्रहण करने की ठानी तो उन्हें ‘कहे बिना’ रह नहीं सका। भक्ति काव्य की अनुभूति काफी तीव्र और ताजा थी। आत्ममन्थन की इस पीड़ित किन्तु अपरिहार्य प्रक्रिया ने ही इन निबन्धों को लिखने के लिए विवश किया। भारत के एक उत्तर औपनिवेशिक नागरिक होने के नाते मैंने सहजभाव से अपनी ‘गुलामी’ पर सोचा। आत्मा में धँसी गुलामी से क्या मुक्ति पाना सम्भव है ? इसका उत्तर मुझे भक्ति-काव्य में मिला कि सम्भव क्यों नहीं है ! भक्ति काव्य का मधुर विद्रोही चिन्तन मानव को स्वच्छन्द बनाता है और उस मानवीयता का विकास करता है जिसमें यूरोपीय चिन्तन का ‘अन्य’ नहीं है। भक्ति काव्य का अपना भूमण्डल है, अपना आकाश है और अपने प्रतीक मिथक बिम्ब आख्यान। इसमें ‘शास्त्र’ का नहीं, लोक का, लोक-संस्कृति का, लोक-संवेदना का, लोक-धर्म का ‘अपूर्व-अद्भुत’ विस्तार है। यह विस्तार कबीर, दादू, रैदास, जायसी, सूर, मीरा, रसखान, तुलसी, रहीम की भाव-यात्रा में मैंने पाया है। इस भाव-यात्रा में आत्म निर्वासन की जगह पर है आत्मबोध और लोक जागरण का आलोक।
भक्ति काव्य का यह साक्षात्कार चाहे अतल गहराइयों में न ले जाए लेकिन पानी में छपाक-सी डुबकी लगाकर मोती बाहर लाने का उज्ज्वल भाव इससे अवश्य मिलेगा। और यह क्या कम है !
(पुस्तक के ‘प्राक्कथन’ से)
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